एक ज़माना था जब शहर या कस्बे में मेले का आना किसी पारंपरिक त्योहार से कम खुशियाँ देने वाला नहीं होता था। हम बच्चों में छोटे बड़े झूले देखने और नए खिलौने खरीदने की जिद होती। छोटे मोटे सामानों को कम दामों पर खरीद कर गृहणियाँ गर्व का अनुभव करतीं। साथ ही रोज़ रोज़ के चौका बर्तन से अलग चाट पकौड़े खाने का मज़ा कुछ और होता। तब इतने फोटो स्टूडियो भी नहीं हुआ करते थे और कैमरा रखना अपने आप में धनाढ़य होने का सबूत हुआ करता था। ऐसे में मेले के स्टूडियो में सस्ते में पूरे परिवार की फोटुएँ निकल जाया करती थीं। और तो और पूरा परिवार फोटो के पीछे की बैकग्राउंड की बदौलत अपने शहर बैठे बैठे कश्मीर की वादियों, आगरे के ताजमहल या ऐसी ही खूबसूरत जगहों का आनंद लेते दिखाई पड़ सकता था।
वक़्त का पहिया घूमा , महानगरों व बड़े शहरों में एम्यूजमेंट पार्क, शापिंग मॉल्स, मल्टीप्लेक्स, फूड कोर्ट के आगमन से वहाँ रहने वाले मध्यम वर्गीय समाज में इन मेलों का आकर्षण कम हो गया। गाँवों और कस्बों से युवाओं के पलायन से मेले की रौनक घटी। पर क्या इस वज़ह से कस्बों और गाँवों में भी मेलों के प्रति उदासीनता बढ़ी है? आइए इस प्रश्न का जवाब देने के लिए आज आपको ले चलते हैं उत्तर बिहार में नवंबर के महिने में लगने वाले ऐसे ही एक मेले में जिसकी ख्याति एक समय पूरे एशिया में थी।
बिहार की राजधानी पटना से मात्र पच्चीस किमी दूर लगने वाले सोनपुर के इस मेले को हरिहर क्षेत्र का मेला भी कहा जाता है और एशिया में इसकी ख्याति मवेशियों के सबसे बड़े मेले के रूप में की जाती है। मेले में मेरा जाना अकस्मात ही हुआ था। नवंबर के महिने में उत्तर बिहार में एक शादी के समारोह में शिरक़त कर वापस पटना लौट रहा था कि रास्ते में याद आया कि हमलोग जिस मार्ग से जा रहे हैं उसमें सोनपुर भी पड़ेगा। पर मैं जिस समय मेले में पहुँचा उस वक़्त एक महिने चलने वाला मेला अपने अंतिम चरण में था और इसी वज़ह से हाथियों, घोड़ों, पक्षियों और अन्य मवेशियों के क्रय विक्रय के लिए मशहूर इस मेले का मुख्य आकर्षण देखने से वंचित रह गया। वहाँ पहुँचने पर पता चला कि विगत कुछ सालों से मवेशियों के व्यापार में यहाँ कमी आती गई है और अभी तो सारे मवेशी मेला स्थल से जा चुके हैं।
ये सुनकर मन में मायूसी तो छाई पर मेले में जा रही भीड़ को देख के ये भी लगा कि चलो सजे धजे मवेशियों को नहीं देखा पर यहाँ आ गए हैं तो हरिहर नाथ के मंदिर और इस कस्बाई मेले की रंगत तो देख लें।
कहा जाता है कि एक समय में ये मेला यहाँ ना हो के पटना से सटे हाजीपुर में मनाया जाता था, बस मेले के शुरुआत के पहले की पूजा हरिहर नाथ के मंदिर (Harihar Nath Temple,Sonpur) में हुआ करती थी। औरंगजेब के शासन काल में मेले का स्थान हाजीपुर से हटकर सोनपुर हो गया। किवदंतियाँ ये भी हें कि इस मंदिर का निर्माण स्वयम् भगवान राम ने तब करवाया था जब वो जनक पुत्री सीता का हाथ माँगने मिथिला नरेश के पास जा रहे थे। सोनपुर के पास गंगा नदी नेपाल से आने वाली गंडक से मिलती हैं। हर साल कार्तिक पूर्णिमा के दिन यहाँ श्रद्धालु स्नान कर मंदिर में पूजा करते है और इसी दिन से मेले की शुरुआत होती है। मंदिर को आज के रूप में लाने का श्रेय यहाँ के राजा राम नारायण को दिया जाता है। मवेशियों को खरीदने बेचने की परंपरा यहाँ कैसे शुरु हुई ये तो पता नहीं मगर इतिहासकारों की मानें तो मगध सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य की सेना के लिए हाथी यहीं से मँगाए जाते थे।
मंदिर दर्शन के बाद हम मेला भ्रमण पर निकल गए। बिहार के मेलों में खान पान की जानी पहचानी सूची में एक वस्तु आपको हट कर दिखाई देगी। वो है यहाँ की गोल मटोल लिट्टी। आटे में सत्तू को भर कर आग में पकाई जाने वाली लिट्टी को आलू के चोखे व टमाटर की चटनी के साथ खाने का आनंद ही कुछ और है। आजकल शादियों में यही लिट्टी घी में पूरी तरह डुबाकर परोसी जाने लगी है। मेलों में तो ये आप को छानी हुई ही मिलेगी क्यूँकि आग में पकाने में समय जो लगता है।
कलकत्ता का नाम तो कोलकाता कब का हो गया पर सात रुपये में हर चीज़ बेचने वाले दुकानदार इसका नया नामकरण न्यू कलकत्ता के रूप में कर रहे हैं तो हर्ज ही क्या है। वैसे फैशन का गारंटी से क्या संबंध है ये मैंने यहीं देखकर जाना :)।
घूमते घामते हम मेले के उस हिस्से में पहुँचे जिसकी वज़ह से देश भर में इस मेले की प्रसिद्धि या सही शब्दों में कहा जाए तो बदनामी बढ़ी है। एक वक़्त था जब नौटंकियाँ गाँव और कस्बाई संस्कृति के मनोरंजन का अहम हिस्सा हुआ करती थीं। अक्सर इसमें पुरुष स्त्रियों का स्वाँग भर कर अपनी अदाओं से दर्शकों का मन मोहा करते थे। तब स्त्रियाँ का इनमें भाग लेना अच्छा नहीं समझा जाता था।
पैसों के पीछे की भागमदौड़ ने आज माँग और पूर्ति के समीकरण बदल दिए हैं। लिहाजा कोलकाता से लेकर मु्बई, दिल्ली से लेकर नेपाल तक की लड़कियाँ अपनी ऊल जलूल हरकतों से लोगों को रिझाने का काम करती हैं। मैं तो दिन में यहाँ पहुँचा था इसलिए शो चालू नहीं था पर अगर आप इस थिएटर का स्टेज देखें तो पाएँगे कि ये भी एक तरह का पशु मेला ही है। अंतर सिर्फ इतना है कि यहाँ स्टेज़ पर बनी लोहे की जालियों के उस तरफ जानवरों की जगह औरतों की नुमाइश होती है। लोहे की जालियाँ इसलिए होती हैं कि दूसरी तरफ खड़ी भीड़ हिंसक पशु का रूप ना ले ले। साथी ब्लॉगर शचीन्द्र आर्य ने बेहतरीन लेख लिखा है इस बारे में। इस तरह के थियेटर किस तरह अपने ग्राहकों को आकर्षित करते हैं इस पर गौर करें.
“जब भी लगता भीड़ कुछ कम होती तो परदे को कुछ देर के लिए उठा देते और अजीबो गरीब परिधानों मेकप में लिपी पुती देहों को देखने का कोई मौका वहाँ से गुज़रता शख्स नहीं छोड़ता। के उसका मन ललचाया और अस्सी सौ रुपये की टिकट खरीद कर अन्दर। कोई हिरामन हो और तीसरी कसम खा चुका हो तो बात अलग है।“
इन मेलों को देखकर यही लगता है कि भले ही मध्यम वर्ग की आकर्षण सूची से मेले निकल चुके हैं पर अब भी गाँवों और कस्बों में रहने वाले समाज के एक बहुत बड़े वर्ग के मनोरंजन की जरूरतों को ये पूर्ण करते हैं। रही बात हरिहर क्षेत्र क इस मेले कि तो इतनी गौरवशाली और धार्मिक परम्पराओं से जुड़े इस मेले में ये मनोरंजन स्वस्थ प्रकृति का हो इसकी जिम्मेवारी सरकार और मेला प्रबंधन की बनती है। हाल फिलहाल में लोक कलाकारों द्वारा मेला स्थल पर सांस्कृतिक उत्सव का रूप देकर इस दिशा में कुछ पहल हुई है पर इस दिशा में और जोश शोर से प्रयास करने की जरूरत है।
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Submitted by: Manish
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